उत्तरी एवं दक्षिणी छत्तीसगढ़ मेंजल, जंगल और जमीन की लड़ाई और सरकार का मौन हो जाना

रायपुर/सरकार शायद ऐसे ही चलती है, शायद इसी का नाम लोकतंत्र है? कहीं के ग्रामीण 350 किलोमीटर पैदल चल कर अपनी मांगों को शिकायतों को देने प्रदेश की राजधानी पहुंच जाते हैं और राज्यपाल व सीएम से मिल कर अपनी समस्या बताते हैं। राज्यपाल पत्र लिखती हैं और जांच का निर्देश देती हैं। लेकिन राज्यपाल के पत्र की सुनवाई ही इस प्रदेश में नहीं होती।

पांचवी अनुसूची और पेशा कानून जैसी बात कहां है इस प्रदेश में। प्रदेश में आदिवासी मुख्यमंत्री जब भाजपा ने बनाया तो आदिवासियों में यह विश्वास जगी थी कि चलो अब आदिवासियों की इस सरकार में सुनवाई होगी। लेकिन वहीं ढाक के तीन पात। मुख्यमंत्री चाहे आदिवासी बने या पिछड़ा वर्ग से हो या फिर सामान्य।

सरकारें तो एक जैसी ही कार्य करती हैं। बस कुर्सी पर बैठने वाला बदलता है उसकी मानसिकता, कार्य करने का ढर्रा सब एक जैसा ही होता है।

सरगुजा में काफी समय से जल, जंगग और जमीन की लड़ाई चल रही है। जब ग्रामीण आदिवासियों की सुनवाई कहीं नहीं हुई तो सैकड़ों की संख्या में ग्रामीण उदयपुर से पद यात्रा करते हुए रायपुर पहंुचे और वहां राज्यपाल, मुख्यमंत्री एवं अन्य मंत्रियों से मुलाकात कर ग्राम पंचायत के ग्राम सभा को अधिकारियों द्वारा फर्जी तरिके से कोल खनन के पक्ष में बताने का विरोध किया।

बताया कि हमारे ग्राम पंचायत की फर्जी ग्रामसभा के आधार पर कोल खनन को अनुमति मिली है इसकी जांच करायी जाये। राज्यपाल ने मुख्य सचिव को पत्र लिख कर जांच कराने कहा, मुख्य सचिव ने कलेक्टर को कहा लेकिन जांच नहीं हुई। मामला अनुसूचित जनजाति आयोग पहुंचा, आयोग ने कई बार जांच रिपोर्ट मांगी ने कलेक्टर देना चाहते हैं और न कमिश्नर बात साफ है कि वह ग्रामसभा फर्जी थी।

जल, जंगल, जमीन के लिये आज भी संघर्ष चल रहा है। ग्रामीण 2 वर्ष से अधिक समय से धरने पर बैठे हैं, जब कि कटाई शुरू होती है जंगलों में पहुंच कर विरोध करते हैं। लेकिन इनकी सुनने वाला कौन है?

वहीं अब दूसरी ओर दक्षिणी छत्तीसगढ़ में भी पदयात्रा कर लोग जल, जंगल, जमीन बचाने गुहार लगा रहे हैं। बस्तर संभाग के बीजापुर जिला के अंतर्गत भोपालपट्नम तहसील के 76 गांव के लोग 80 किलोमीटर पैदल चलकर भोपालपट्नम पहुंचे।

उन्होंने अनुविभागीय अधिकारी भोपालपटनम के माध्यम से देश के महामहिम राष्ट्रपति, छत्तीसगढ़ के राज्यपाल, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री, छत्तीसगढ़ के वन मंत्री जो की स्वयं बस्तर संभाग से ही है व बस्तर लोकसभा क्षेत्र के सांसद और क्षेत्रीय विधायक के नाम ज्ञापन सौंप कर पांच सूत्रीय मांग पूरी करने की मांग रखी है।

उनकी प्रमुख मांग है कि इंद्रावती टाइगर रिजर्व क्षेत्र के 76 गांव के लोगों का विस्थापन/पुनर्वास नहीं किया जाये? बस्तर संभाग में पांचवी अनुसूची लागू है, पेसा कानून भी लागू है। अतः उसकी पूरी तरह पालन हो। आदिवासियों ने अनुविभागीय अधिकारी को स्पष्ट कहा कि हम जान दे देंगे लेकिन जमीन नहीं देंगे।

हम अपने जल, जंगल, जमीन जो हमारे पूर्वज लोगों ने इसे बड़ी मेहनत से सहेज कर रखा था। उसे विकास के नाम पर और अभ्यारण के नाम पर नहीं देंगे। हमें बेदखल नहीं किया जा सकता है।

इसे राज्य सरकार और केंद्र सरकार बंद करे। इन सभी गांव के जंगलों से वन उपज के माध्यम से हम अपना परिवार चलते हैं। खेती-बाड़़ी करते हैं, जंगल की रक्षा करते हैं। हमारे पूर्वजों की जमीन से हमें बेदखल करने का षड्यंत्र किया जा रहा है। यह हमें बर्दाश्त नहीं है।

76 गांव के आदिवासी एकत्रित हुए थे और 80 किलोमीटर पैदल चलकर देश एवं प्रदेश के प्रमुख लोगों के नाम ज्ञापन सौप कर कानून का पालन करने की मांग की है।

वहीं सरगुजा संभाग हसदेव जंगल के मामले को लेकर कई सालों से जल रहा है। आदिवासी आंदोलन कर रहे हैं। बस्तर संभाग में भी स्थिति अब ठीक नहीं है। छत्तीसगढ़ शासन जो भाजपा की है और केंद्र शासन जो एनडीए में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार है। उसे इसे संज्ञान में लेना चाहिए।

बस्तर संभाग के दोनों सांसद भाजपा के हैं, वन मंत्री बस्तर संभाग से हैं। इन्हें 76 गांवों के आदिवासी लोगों की मांगों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। नहीं तो ये आक्रोश कब किस दिशा में मुड़ जाये और ये छोटा से आंदोलन कब किसके साथ जुड़ कर किसी अन्य ताकत से साथ खड़ा हो जाये कुछ कहा नहीं जा सकता।

एक ओर देश के गृहमंत्री अमित शाह प्रदेश में माओवादी, नक्सल समस्या को समूल खत्म करने की बात करते हैं। वहीं दूसरी ओर सरकारों को साथ और सहयोग ही जब आदिवासी, वनांचल में रहने वाले लोगों के साथ नहीं होगा तो यह कैसे संभव है समझ से परे है।

सरगुजा और बस्तर की कहानी तो कुछ और ही बयां कर रही है क्या यह जल, जंगल और जमीन की लड़ाई और संघर्ष को सरकार की अनदेखी कुछ और न बना दें, कहीं ऐसा न सुलगा दे कि बुझाने से भी न बुझे।

अभी समय है छत्तीसगढ़ के दोनों ही इलाके उत्तरी छत्तीसगढ़ एवं दक्षिणी छत्तीसगढ़ में सरकार आदिवासियों के साथ बात करके, उनकी समस्याओं का हल कर के बहुत कुछ कर सकती है अथवा बाद में पछतावा ही हाथ आयेगा।

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