नेटफ्लेक्स फिल्म समीक्षा : समीक्षक राजेंद्र रंजन गायकवाड़, कटहल फिल्म में कानून व्यवस्था पर उठे गंभीर सवाल 

निदेशक यशोवर्धन मिश्रा, निर्माता शोभा कपूर और एकता कपूर , पट-लेखक अशोक मिश्रा की नेटफ्लेक्स रिलीज “कटहल” फिल्म में हंसी-मजाक के साथ ही कानून व्यवस्था पर गंभीर प्रश्न उठाया गया है। उत्तर प्रदेश का दक्षिण प्रांत और कल्पित मोबा थाना, मध्य प्रदेश का छतरपुर/ पन्ना का क्षेत्र जहां बुंदेल खंड का परिवेश है। स्थानीय बोली में बनाई गई इस फिल्म को देखकर एंतों चेखव की कहानी गिरगिट याद आ गई।
आज से 40 साल पहले इरफ़ान सौरभ के निर्देशन में इंटरबैंक ड्रामा कम्पटीशन के अंतर्गत गिरगिट का मंचन रविंद्रनाथ टैगोर भवन भोपाल में किया गया था, जिसमें मैंने पुलिस कांस्टेबल की भूमिका निभाई थी। मेरे सीनियर खान साहब उसमें पुलिस इंस्पेक्टर तथा भाई ज्योतिरत्न शर्मा ने चोर का रोल किया था। बात हो रही है कटहल फिल्म के कहानी की, जो मजाकिया मूड को लेकर चलती है। जहां पर स्थानीय विधायक के घर से कटहल पेड़ पर लगे दो कटहल चोरी हो जाते हैं। विधायकजी पूरे पुलिस विभाग को हड़का कर चेतावनी देते हैं कि अगर कटहल चोरों का पता नहीं चला तो सबका स्थानांतरण किया जाएगा, सभी के विरुद्ध कड़ी कारवाई भी की जाएगी। पुलिस अधीक्षक से लेकर पुलिस इंस्पेक्टर और अन्य कलाकारों की जो भूमिका स्थानीय कलाकार ने की, वह सराहनीय है। महिला पुलिस महिमा (बसोर) को जाति सूचक शब्द से बार-बार बुलाया गया है। जाति सूचक शब्द सुनने में अच्छा नहीं लगता। फिल्म में यह दिखाने की कोशिश की गई है कि आरक्षित वर्ग का अधिकारी कितनी बड़ी पोस्ट पर क्यों न हो? संकीर्ण मानसिकता के लोग पीठ पीछे, छोटी-छोटी बात पर अधिकारी की जाति पर अक्सर उतर आते हैं। सिने जगत की बहु प्रसिद्ध निदेशक, निर्माता शोभा कपूर, एकता कपूर और अशोक मिश्रा द्वारा लिखित फिल्म में मुझे लगा कि जो कहानी लिखी गई है, वह बहुत गंभीर बात की ओर इशारा करती है और आज की सच्चाई पर चोट करती है। यह बात केरल स्टोरी और बुंदेलखंड की कहानी की ही नहीं, सभी प्रांतों में बालिकाओं के अपहरण के आंकड़े घट नहीं रहे हैं। प्रेम प्रसंग या अन्य किसी भी तरीके से भगाने की कोशिश आज से नहीं वर्षों से चली आ रही है।एनसीआरबी के वर्षवार अगर हम रिकॉर्ड को देखें तो यह संख्या निरंतर बढ़ती ही जा रही है, तब सरकार अभियान चलाती है कि बेटी बचाओ। जमीनी सच्चाई पर सवाल यह उठता है कि निर्देशक, लेखक, कवि अपनी बात अपने पात्रों, शब्दों के माध्यम से कह तो देता है लेकिन नियंत्रण करने वाली संस्थाएं पूरी तरह सफल क्यों नहीं हो पाती हैं? कटहल फिल्म में लड़कियों को अगवा करने और कराने का काम एक ढाबे का हलवाई करता है। वह अनपढ़, अधपढ़, बेरोजगार, भटके हुए लड़कों को छेनी, तंबाकू, पान, गुटका खिलाकर अपराध करवाता है। ऐसी ही मेरी एक कहानी (अनकहे रिश्ते-कहानी संग्रह में 2019 में वैभव प्रकाशन रायपुर से प्रकाशित भरत कहानी है)। वर्ष 1995 में खंडवा जेल अधीक्षक था तब सच्ची घटना पर लिखी थी। राखी के दिन एक कैदी खाना नहीं खा रहा है, मैंने उससे पूछा कि आप खाना क्यों नहीं खा रहे हो? तो उसने बताया कि जिस बहन के खातिर हम जेल काट रहे हैं, आज वही बहिन राखी बांधने नहीं आई। कहानी में प्रथम प्रसव पर मायके आई बहिन के ऑपरेशन के लिए एक सेठ उधार पैसा देकर भरत से चोरी करवाता था। कटहल फिल्म में स्थानीय हलवाई किडनैपिंग करा कर फिरौती मांगता है। स्थान विशेष, अपराध के प्रकार, अपराधियों की कार्यप्रणाली हमेशा बदलती रहती है। अब सवाल यह है इस व्यवस्था को सुधारे कौन?डायरेक्टर ने अपना काम कर दिया हमने फिल्म देख कर आंसू भी बहाए, गुस्सा भी खूब आया और थोड़ा सा कहीं-कहीं कटहल शीर्षक और कहानी के कथानक देख/सुनकर मनोरंजन भी हुआ, लेकिन समस्या का हल किधर है? कटहल फिल्म के सभी किरदार पुलिस में इन्वेस्टिगेशन कर रहे हैं। उनके हाव-भाव, हरकतों से भी मनोरंजन होता है, लेकिन यह सत्य बात है कि अशोक मिश्रा की साफ-सुथरी फिल्म कटहल घर बैठे (नेटफ्लेक्स पर सपरिवार) देखी जा सकती है, जो किसी मायने में केरल स्टोरी से कम नहीं है। संदेश दोनों फिल्मों का एक जैसा ही है। वहां केरल राज्य की तीन लड़कियां वर्ग विशेष के लड़कों द्वारा बहला-फुसलाकर आतंकवादी संगठन से जोड़ी जाती हैं। इधर कटहल फिल्म में 43 गुमशुदा लड़कियों की फाइल दबा दी जाती है। संवेदनशील महिला पुलिस इंस्पेक्टर फाइल को एक पत्रकार को दे देती है। पत्रकार अपने तरीके से जब गुमशुदा लड़कियों की खोजबीन का समाचार चलाता है, तो उस पर भी अपराध कायम कर दिया जाता है। इधर कोर्ट कटहल चोरी का रुपये 360 मुआवजा विधायक को दिलाकर महिला पुलिस इंस्पेक्टर महिमा की तारीफ करता, तो उसका प्रमोशन हो जाता है, किंतु जातिगत भेदभाव और पदीय दायित्व से फिल्म के नायक और नायिका विवाह बंधन में नहीं बंध पाते। फिल्म अपना संदेश छोड़ने में सफल है कि लोग मौलिक कर्तव्यों को भूलकर अपने निजी स्वार्थ में बिजी हैं। दूसरी तरफ दर्शकों के लिए सोचने समझने की जरूरत भी है कि बेटी बचाओ अभियान का नारा लगाने से कुछ नहीं होगा, बेटियों को आगे बढ़ाने के लिए उनके हक देने होंगे और उनकी संपूर्ण सुरक्षा तय करनी होगी।

(लेखक/कवि और कहानीकार हैं, सेवा निवृत केंद्रीय जेल अधीक्षक हैं)

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