चौधरी देवीलाल की विरासत की जंग में चाचा को भतीजे दुष्यंत ने कैसे दी पटखनी? | chandigarh-city – समाचार हिंदी में

चौधरी देवीलाल की विरासत की जंग में चाचा को भतीजे दुष्यंत ने कैसे दी पटखनी?

‘किंगमेकर’ बनकर दुष्यंत खुद को स्वर्गीय चौधरी देवीलाल का सियासी वारिस साबित करने में सफल रहे

दुष्यंत को चुनाव में भले ही चौंकाने वाली बातें नहीं मिलीं हों लेकिन उन्होंने हरियाणा में अपने नेताओं के जरिए जहां बीजेपी और कांग्रेस का खेल बिगाड़ा तो चाचा की पार्टी इनेलो का सूपड़ा साफ करवा दिया।

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  • आखरी अपडेट:
    24 अक्टूबर 2019, दोपहर 1:15 बजे IST

तिहाड़ जेल से जब इनेलो के मुखिया ओमप्रकाश चौटाला अपने पोते दुष्यंत और दिग्विजय सिंह चौटाला को पार्टी से निकालने का फरमान जारी कर रहे थे तब उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि पोता ही दिन इनेलो के सियासी ताबूत में नाखून ठोंकने का काम करेगा। अपने परदादा चौधरी देवीलाल की उपाधि जननायक का भावनात्मक इस्तेमाल करते हुए दुष्यंत चौटाला ने नई पार्टी जजपा यानी जननायक जनता पार्टी बना ली। चुनाव प्रचार के दौरान वो खुद और अपनी पार्टी को चौधरी देवीलाल का असली राजनीतिक वारिस बताते हैं। चुनावी तस्वीर ने भी साफ कर दिया है कि जाट वोटर्स ने जेजेपी पर भरोसा जताया है। जेजेपी ने इनेलो का सूपड़ा साफ करके ये पुख्ता कर दिया कि चौधरी देवीलाल की राजनीतिक विरासत की जंग में वे भारी पड़ गए हैं।

राजनीति की विदंबना देखिए कि ऐन विधानसभा चुनाव से पहले दुष्यंत की जेजेपी से बीएसपी ने गठबंधन तोड़ लिया था। आज वही जेजेपी हरियाणा में सरकार बनाने के लिए बीजेपी और कांग्रेस की पहली जरूरत बन गई है। दुष्यंत ने जिस तरह से पार्टी को खड़ा कर चुनाव की रणनीति बनाई इसके लिए उन्हें पूरी श्रेय मिलना चाहिए।

दुष्यंत ने ये साबित किया कि वे बड़े फैसले ले सकते हैं। इनेलो से बाहर होने के बाद उनका पहला बड़ा फैसला खुद की पार्टी बनाना था। दुष्यंत के सामने नई पार्टी बनाने को लेकर हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के बेटे कुलदीप बिशनोई का उदाहरण था। कुलदीप बिशनोई ने नई पार्टी हजकां बनाई थी लेकिन वो प्रयोग सफल नहीं हुआ था। 9 साल बाद कुलदीप को अपनी पार्टी हजकां का कांग्रेस में विलय करना पड़ा। बावजूद इसके दुष्यंत ने बजाए किसी पार्टी में शामिल होने के खुद अपनी पार्टी बनाने का हौसला दिखाया। उनकी नई पार्टी के गठन के साथ ही इनेलो के बड़े नेता पार्टी छोड़-छोड़ कर जेजेपी का जाप करने लगे।

दुष्यंत का दूसरा बड़ा फैसला था जींद जिले की उचाना कलां से दोबारा चुनाव लड़ना। इस सीट से वो साल 2014 में बीजेपी की उम्मीदवार प्रेमलता से चुनाव हार चुके थे। इसके बावजूद दुष्यंत ने यहां से फिर से चुनावी मुकाबला किया। इस बार भी उनके सामने बीजेपी की प्रेमलता ही थीं। लेकिन दुष्यंत ने रिस्क लेना बेहतर समझा जो कि उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं के लिए संघर्ष का संदेश था।हालांकि इसी साल दुष्यंत हिसार से लोकसभा चुनाव हारे है। लेकिन उन्होंने उचाना-कलां से चुनाव लड़ने को लेकर कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई।

दुष्यंत ने हरियाणा की राजनीति में अपने भविष्य की तस्वीर उसी दिन नुमाया कर दी थी जब उनकी जींद की रैली में 6 लाख लोग उमामा थे। इनेलो से बाहर होने के बाद जींद की रैली में दुष्यंत ने न्यू पार्टी का ऐलान किया था। 1986 में स्वर्गीय चौधरी देवी लाल की जींद की रैली के बाद दुष्यंत की रैली में इतनी भारी आबादी वालाला उमरा था। इसी रैली से ये साफ हो गया था कि देवीलाल की राजनीतिक विरासत को संभालने के लिए दुष्यंत अपने चाचा अभय सिंह से दो-दो हाथ के लिए तैयार हो चुके हैं।

दुष्यंत को चुनाव में भले ही चौंकाने वाली बातें नहीं मिलीं हों लेकिन उन्होंने हरियाणा में अपने नेताओं के जरिए जहां बीजेपी और कांग्रेस का खेल बिगाड़ा तो चाचा की पार्टी इनेलो का सूपड़ा साफ करवा दिया। एक समय था जब उस जाटों के सबसे ज्यादा वोट भारतीय राष्ट्रीय लोकदल को मिला करते थे। उसके बाद फिर जाट वोट कांग्रेस और बीजेपी में बंटने लगे। लेकिन अब ऐसा लगता है कि जैसे दुष्यंत के रूप में हरियाणा में जाटों को इनेलो का विकल्प मिल गया है।

सबसे कम उम्र में सांसद बनकर सबको हैरान करने वाले दुष्यंत अब राजनीति के मूल रूप से इम्तिहान का सामना करेंगे। उनके पास पहले दफे ऐसे राजनीतिक प्रस्ताव होंगे जो वे और उनकी पार्टी का भविष्य तय करेंगे। एक सही फैसला उन्हें हरियाणा की राजनीति की ऊंचाई पर ले जाएगा।

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